Sunday 2 April 2017

दिये गये गुलाब

दिये गये गुलाब
किताबों के मध्य
पन्नों पर सूख गए हैं
परंतु अभी तक
ज्यों की त्यों जिंदा है 
तुम्हारे मिलने की स्मृतियाँ,
तुम संशय न करो
तुम्हारी यादों का तुलसीवन
हर बरसात के साथ
हो जाता है सघन से सघनतम।
सूखे गुलाब को जब भी
छूती है तर्जनी
वह हो जाती है व्यस्त
हाँ, यह वही तर्जनी है
जो तुम्हारे कपोल पर
लुढ़कते आँसुओं को
उठा लेती थी मोतियों की तरह।
अब परिदृश्य बदल गए हैं
तर्जनी वही है
परंतु आँसू भी उसी के हैं
अब वह उन्हें मोतियों की तरह
नहीं उठाती है
बल्कि छिटक देती है
मौसम को कुछ नम करने के लिए।
दबे गुलाब सुर्ख नहीं है
परंतु सौरभ अभी भी मौजूद है
किताबें और तर्जनी
सूखे गुलाबों से आज भी महकती है
आखिर यह ताकत
उस प्रेम की है
जिसे अनुभव ही किया जा सकता
रस के होने या न होने की तरह।
मुझे अब पत्थरों से
नहीं रही शिकायत
क्योंकि गुलाब की उत्पत्ति
उनके विरुद्ध की गई
प्रकृति की है कोमल प्रतिक्रिया।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।

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