Tuesday 8 October 2013

कुछ नया होने को है

मुर्दनी माहोल में
सरगोशियां होने लगे
जब धुंआ यकायक भर उठे
तब मान लेना
कुछ नया होने को है।

नित नए संत्रास से
वातावरण गर्माने लगे
जब धरा रह-रह जल उठे
तब जान लेना
कुछ यहाँ होने को है।

जिंदगी की हाट में
श्वांस महँगी होने लगे
जब मुट्ठियाँ कसने लगे
तब देख लेना
कुछ उलट होने को है।

मृत्तिका के सृजन से
सुर्ख सूरज तपने लगे
जब धरा पाटल सी लगे
तब कह लेना
उत्सर्ग ही होने को है।

कुछ नए की चाह में
सब हव्य ही होने लगे
जब हवन खुद होने लगे
तब सीख लेना
व्यर्थ सब जलने को है।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द। 

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