Thursday 16 May 2013

तुम्हारे कार्य , कार्य नहीं


तुम्हारे कार्य , कार्य नहीं ,
भोंडी हरकते हैं ,
सामजिक व्यक्ति ,
छिप-छिप , अकेले-अकेले ,
रहता नहीं ,
अपने सुख-दुःख ,
बांटता है सभी के मध्य ,
यह तय है -
तुम कुछ तो हो सकते हो ,
परन्तु ,
सामजिक नहीं हो सकते .

जिन्होंने भी ,
सामजिक सरोकारों को ,
अनुपयोगी माना ,
या ,
जानबूझ कर त्याज्य बनाया ,
उन्हें देखा गया है ,
प्यार की भीख मांगते ,
और ,
तिल-तिल मरते ,
जैसे रेगिस्तान में ,
मर जाते हैं ,
जंगी पहाड़ ,
आखिर उस ने ,
जिंदगी भर जिया था ,
भयानक रेगिस्तान .

तुम्हें अभी मेरी बात ,
समझ में नहीं आएगी ,
अभी तुम पर ,
चढ़ा हुआ है ,
कुलीनता का चश्मा ,
और ,
बंधी हुई है आँखों पर,
करारे नोटों की पट्टी ,
यह सब उतारने ,
एक दिन जाहिलों की भीड़ ,
तुम्हारे द्वार पर जुटेगी ,
वही भीड़ ,
पोंछेगी तुम्हारे आंसुओं की झड़ी ,
जो बह रही होगी ,
नाजुक समय की मार से ,
जैसे बहता है पाताल तोड़ कुआ .

बहुत भयावह दृश्य
मेरे सामने नाचता है ,
एक बूढा रोया था ,
ठीक मेरे सामने ,
क्योंकि उस ने ,
हमेशा से ही बिताई थी ,
अकेलेपन की जिंदगी ,
और ,
ठोकर मारी थी ,
सामाजिक सरोकारों के ,
मधुर झरने को .
फलस्वरूप -
उस के आत्मज ,
जी रहे हैं ,
सरोकारों से रहित जिंदगी ,
उन्होंने जिंदगी का ,
यही रूप देखा था ,
और ,
अब वह बूढा ,
पश्चाताप की आग में जलता हुआ .
अकेले-अकेले डोलता है ,
किसी रेगिस्तानी बवंडर की तरह .

                          -त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

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