Thursday 25 October 2012

कल तेरा मैं लिख रहा बिगड़ा न कर .


ज़रा  ज़रा सी बात पर बिगड़ा न कर.
आईने में  शक्ल देखी  बिगड़ा न कर .

हर बात पर कटखना  बन काटता है .
एक चिकोटी  काटी है बिगड़ा न कर.

नित कुचल  कर  हंसता है तू रोज ही
क्षुद्र तिनका आँख में हूँ बिगड़ा न कर.

लहू  की  सौगंध खा कर ताव खाता .
लहू से लहू मिल चला बिगड़ा न कर.

मेरा  कांधा बहुत तुझ को रास आया .
आखिरी  कांधा दे रहा बिगड़ा न कर .

रोज मुझ पर अपनी दाढ़ें गाड़ता था .
दांत  मैनें  भी दिखाए बिगड़ा न कर .

सब का खा कर भी डकार लेता नहीं.
तोंद की ही थाह ली है बिगड़ा न कर.

एक समय था कि परों को बीनता था 
अब परिंदों के परों पर बिगड़ा न कर .

जिस घृणा  से  जिंदगी तू ने बिताई .
पूरा ज़माना हँस पडा बिगड़ा न कर .

इक कटोरा ले के आया मेरे लिए तू .
मैं  कटोरा  फेंकता हूँ बिगड़ा न कर .

हर  बार  मेरी  किस्मतें लिखता रहा .
कल तेरा मैं लिख रहा बिगड़ा न कर .




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