Saturday 21 April 2012

जिस देश का है नृप , विचलित-विलोड़ित ,                      
                     उस देश की प्रजा को , शांति कहाँ मिलती.
देख लिया ध्वंस काल , जिस देश की प्रजा ने ,                      
                     उस देश की प्रजा को , कृति  कहाँ मिलती .
देख लिया प्रतिकार ,  जिस देश की प्रजा ने ,                      
                     उस देश की प्रजा को , प्रीति कहाँ मिलती .
देख लिया प्राण भय ,जिस देश की प्रजा ने ,                      
                     उस देश की प्रजा को , सृष्टि  कहाँ मिलती .

जिस देश पर नहीं , दृष्टि का वरद हस्त ,
                      उस देश का स्वरूप , निश्चित ही खोना है.
जिस देश पर नहीं , रीती का वरद हस्त ,
                      उस देश का अभय , निश्चित ही बोना है.
जिस देश पर नहीं , नीति का वरद हस्त ,
                      उस देश का गठन ,  छिन्न-भिन्न होना है.
जिस देश पर नहीं , शांति का वरद हस्त ,
                      वह देश  खंड - खंड , निश्चित ही होना है .

ऐसे देश का निवासी , खोया-खोया रहता है ,
                      प्रच्छन्न वह्नि चूड़ में , दहता ही रहता .
प्राण भय से ग्रसित , शंकित सदा ही रह ,
                      सुधा सम संबंधों में , गरल ही भरता .
मन भ्रमर सा भ्रमे , मति साथ छोड़ती है ,
                       रुग्ण वृक्ष सम फल , भार मान तजता.
हितकारी बाते वहाँ , अहित सी लगती ,
                       प्राण प्यारे जन में भी,अरि रूप लगता.

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