Sunday 8 April 2012

पत्थरों के शहर में ,
बहुत समीप से ,
देखे हैं ,पत्थर .
जिसने भी चाहा,
जैसा भी चाहा,
वही रूप लेते ये पत्थर,
पत्थरों को फिर भी ,
कोसती है,
सम्पूर्ण  दुनिया ,
बेचारे ये पत्थर .


पत्थर ?
हाँ -हाँ ये पत्थर ,
कई-कई  रंग -रूप लिए ,
आकृति और प्रकृति लिए,
मोन - मूक रहे पत्थर ,
दबे - उखड़े पत्थर . 
खेतों की मेड पर ,
वीथियों और राजपथ पर ,
झोंपड़ियों और अट्टालिकाओं की ,
नींव में दबे- दबे ,सुबकते ,
या ,
कंगूरे बने पत्थर .


धन  कुबेरों  के कोष में 
 संगृहीत पत्थर  ,
सुंदरियों की,अँगुलियों में, 
तराशे हुए पत्थर ,
गणिकाओं की दृष्टि से ,
भरमाये पत्थर .
मंदिरों , मस्जिदों में जड़े ,
पञ्च सितारा होटलों के फर्श पर ,
प्रतिबिम्ब उकेरते पत्थर ,
शमशानों- कब्रगाहों पर ,
भयावह  सन्नाटों में दफन ,
ये भूतिया पत्थर ,
या,
देव मूर्तियों का रूप लिए ,
ये पूज्य -पवित्र पत्थर .


आप और हम भी ,
इन पत्थरों जैसे ही ,
जिसने जब  चाहा ,
जिस रूप में चाहा,
उस रूप में किया,
हमारा उपयोग ,
अपना-अपना उल्लू ,
सीधा किया ,
और ,
हमें कभी गंवई ,
कभी जाहिल ,
तो कभी निकम्मा मान ,
मात्र हमारा उपयोग किया ,
क्योंकि ,
हम भी पत्थरों की तरह ,
मोन - मूक रहे .


पत्थरों !
हम तुम्हारे दर्द को समझते हैं ,
क्योंकि , 
हमारा व्यक्तित्व भी ,
तुम्हारी तरह ही गढ़ा जाता है ,
और हम हैं कि वस्तु बने रहते ,
नहीं दर्ज करते प्रतिक्रिया .


पत्थरों! तुम्हारे ,
इस आचरण को 
संवेदनाहीन का ,
प्रतीक बना दिया .
जब कि कृष्ण ने  , 
इस स्वभाव को 
स्थितिप्रज्ञ  कहा  ,
हम जानते है पत्थरों !
तुम्हारे मन की पीड़ा ,
शायद कभी मिले ,
अभिव्यक्ति का अवसर ,
तो जरूर कहोगे -
यह दुनिया दोगली है.

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