Thursday 15 March 2012

मैं अनगढ़ ,हूँ तो हूँ ,
यही मेरी पहचान ,
मैं जैसा हूँ ,
वैसा सम्यक हूँ.

मैं नीम , बरगद ,
या बबूल ,
क्या फर्क पडेगा ,
नहीं हो पाया आम.
तनिक करो चिंतन ,
हो भी गया  मैं आम ,
क्या आमों के मध्य ,
नहीं पनपेगा द्रोह ,
और,
क्या वे नहीं उड़ायेंगे ,
मेरा उपहास .

मैं हूँ कटु नीम ,
मेरी कटुता से ही ,
आमों की मधुरिमा ,
मान पाये हुए है.
मैं भी हो गया मधुर ,
बहुत घातक होगा ,
सामूहिक 
स्वास्थ्य के लिए .


मैं अनगढ़ बरगद ,
जटाजूट , अस्त-व्यस्त ,
इसी में ही सुगढ़ आम,
शोभा पाते .
छोड़ दूंगा ,
मेरा महाकाल रूप ,
सारे भूत-प्रेत , अवधूत ,
डाल देंगे डेरा ,
आमों के नीचे ,
फिर ,
आमों पर नहीं पड़ेंगें झूले .
यह उचित नहीं होगा ,
सामूहिक 
सौन्दर्य बोध हेतु .


मैं कंटीला बबूल ,
मेरे कंटक जाल से ही ,
आमों की मसृणता,
सराही जाती है ,
क्यों मसृणता चाहते हो . 
छोड़ दूं कंटक जाल ,
तहस-नहस हो जायेंगे,
आमों के दर्शनीय बगीचे .
यह उचित नहीं होगा,
सामूहिक 
प्रतिरक्षा के लिए .


बस अभ्यर्थना है-
जैसा हूँ वैसा रहने दो ,
इस जन गंगा के ,
तीव्र प्रवाह में ,
मुक्त हो कर बहने दो . 







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