Saturday 18 February 2012

चिंतामग्न राम देख , सुग्रीव यों कहते हैं,
                      प्रभु ! सीता-उद्धार में ,  देर नहीं कीजिए .
आप के आदेश में ही , सब वीर बंधे हुए ,
                      हनुमान-अंगद को , मर्यादा में मानिए .
ऋषभ-सुषेण हो या , चाहे गंधमादन हो ,
                      जाम्बवंत-नील में से , कोई आप चुनिए .
रावण विध्वंश हेतु , सीता के उद्धार हेतु ,
                      पर्याप्त है एक वीर , आदेश तो कीजिए .


राम कहे सुग्रीव से ,  मित्र वर क्या कहूं  ?
                       मैं भी शीघ्र चाहता हूँ , जानकी उद्धार को .
मूल्य सब तिरोहित , हो गये व्यवहार से ,
                       बन के कपोत चले , गगन  विहार  को .
जानता हूँ राघव से , लोक को अपेक्षा बहु ,
                       इस  हेतु  चाहता  हूँ  , रावण  संहार  को .
मध्य में है प्रसरित , पारावार भयंकर ,
                       घेर  लेती  हताशाएं , करता  विचार को .


करबद्ध सुग्रीव हो , कहते हैं राघव से ,
                        शोक ग्रस्त मन सदा , बुद्धि कुंद करता .
शोक और विषाद तो , प्रकल्प में बाधक हैं ,
                        अरि भाव युगल तो , कर्म भ्रष्ट करता .
हताशा है व्याली सम , बारम्बार दंश मारे ,
                        गज सम आत्मबल , पल-पल मरता.
आशा व उल्लास लिये , प्रभु ! आगे बढ़ें आप ,
                         पाता है विजय वही , उत्साह से बढ़ता.   

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