Monday 24 October 2011

प्रिय! बहुत बेशरम हो.


छोड़ कलाई, बाहर देखो,
अम्मा जाग गयी है.
प्रिय! बहुत बेशरम हो.

चुल्हा देखूं , चाय चढ़ा दूं ,
अम्मा से जय राधे कह  दूं,
उनके चरणों शीश नवा कर ,
घर-आँगन को ज़रा बुहारूं  ,
काम अभी तो बहुत पड़ा है,
जैसे छाती पर पहाड़ खडा है.
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
अम्मा जाग गयी है.
प्रिय! बहुत बेशरम  हो.


दीपोत्सव की धन त्रयोदशी है.
लेने जाना है  बहिनों को भी ,
सबको कहना  परिवार सहित ,
देना निमंत्रण मित्रों को भी ,
याद करूँ कामों की सूची,
लगता है जैसे कथा चली ,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
दादी जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेरहम   हो.

बाज़ार को जाना बहुत जरूरी ,
उपहार  को लाना बहुत जरूरी,
संध्या को आतिशबाजी होगी,
बच्चों को खुश करना बहुत जरूरी,
यह घर  मुझको ऐसे लगता ,
जैसे हम पंछी यह नीड़ हमारा ,
बस पीस रहे हैं घर  की चक्की ,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
बुआ जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेसबर  हो.

संगी साथी से नहीं मिलें हैं  ,
बहुत शिकायत है पीहर की,
मिले  हुए एक अरसा बीता ,
नहीं खोज खबर है बाहर की ,
हम अपने में ही ऐसे खोयें हैं ,
जैसे नदिया में झरने खोये हैं,
छोड़ कलाई, बाहर देखो,
बिटिया जाग गयी है.
प्रिय! बहुत  बेखबर  हो.

No comments:

Post a Comment

संवेदना तो मर गयी है

एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह . तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह . आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा . तेरा बदलना चुभ र...