Wednesday 19 October 2011

महान लक्ष्य आनंद



सभी दुःख के कारणों में अपेक्षा ही मूल हैं. अपेक्षा के भ्रष्ट होते ही अहंकार का जन्म होता है. अहंकार बुद्धि को समाप्त कर अज्ञान को जन्म देता है. जिससे मस्तिष्क का नियंत्रण समाप्त हो जाता है. परिणामस्वरूप असम्यक व्यवहार होता है. असम्यक व्यवहार ही कष्टों का हेतु है.

सुख इन्द्रिय जनित है. इसके पीछे दुःख की सत्ता निरंतर है. जैसे दिन के पीछे-पीछे रात्रि की सत्ता स्वतः ही विद्यमान है. अतः सुख को 
साध्य ना बना कर आनन्द को साध्य बनाना जीवन का सही लक्ष्य है.

आनन्द का कोई द्वैत्व नहीं है यह अभयत्व स्वरूप है . यह निर्विकल्प है.

सत्य और आनन्द साधारण व्यक्ति के लिए एक जैसे हो सकते हैं परन्तु आत्मज्ञानी इनमें अंतर समझता है.आत्मज्ञानी यह अच्छी तरह से जानता है कि जिन कर्मों के पीछे मुझे जन्म मिला है उन कर्मों से छुटकार इतना आसान नहीं है. अतः वह कर्म तो अवश्य करता है परन्तु वे प्रायश्चित ही होतें हैं. अर्जित कर्म जितने घटते नहीं उससे ज्यादा वे बढ़ ही जातें हैं .इनको घटाने का एक ही विकल्प है -कर्म मात्र कर्म ना होकर अनुष्ठान हों . अनुष्ठान ही पूर्व कर्मों के प्रायश्चित मानें गयें हैं .

अर्जित कर्म बढ़ें नहीं .इस हेतु कदम-कदम संभल-संभल कर ही बढ़ाना होगा. आनन्द के मार्ग में सुख के अवसर कई-कई बार आयेंगे . जैसे ही उसके स्वाद के आस्वादन में लगे, आपके जीवन का उद्देश्य "आनन्द " आपके हाथ से गया . जीवन यात्रा बीच में ही छोड़ कर फिर से प्रारम्भ करनी होगी. यह प्रकृति का दंड है.

प्रकृति के दंड से बचने का एक मात्र उपाय अनुष्ठान का सम्पादन ही है . पुराणों में कर्मों को हीअनुष्ठान कहा गया है. (ये कहे गए कर्म सद्कर्म हैं ना कि असद्कर्म. )

अन्न को प्राण का कारण माना गया है. पुराणों में अन्न को "अन्न " तथा प्राण को "अन्नाद " कहा गया है . यह इसलिए कहा गया कि अन्न से प्राण की उत्पत्ति होती है और लय भी होता है. मजेदार बात है ना. आप ज़रा ध्यान से सोचेंगे तब यह बात विज्ञान सम्मत ही लगेगी . अन्न से जीवन पलता है. जन्म लेता है. विकास करता है, वंश को बढाता है और अंत में मिर्त्यु को प्राप्त हो कर मृदा में मिल जाता है. पुनः नव सृजन के रूप में अन्न के रूप में जन्म लेता है. अतः अन्न को ब्रह्म कहा गया है.

अन्न की उत्त्पत्ति के लिए जल की आवश्यकता है. जल के लिए पर्जन्य की आवश्यकता है . पर्जन्य के लिए यज्ञ की आवश्यकता है. यज्ञ ही अनुष्ठान है . अनुष्ठानों कीउत्पत्ति सद्कर्मों से होती है. हमारे द्वारा किये गये सद्कर्म प्रकृति के ऋतु चक्र को सुव्यवस्थित करते हैं . जिससे प्रकृति की अनुकम्पा बनी रहती है. प्रकृति की अनुकम्पा प्राप्ति हेतु किये गये अनुष्ठान प्रायश्चित हैं . ये किये गये प्रायश्चित ही हमारी जीवन यात्रा के सशक्त पुष्पक विमान हैं जो हमें हमारे जीवन के महत लक्ष्य तक पहुंचा देतें हैं . यह महान लक्ष्य आनंद ही है.

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